अग्नि नृत्य (Fire Dance)



लोक संस्कृति में छा रही चुहुलबाजी और हल्के-फुल्के मनोरंजन की तुलना में सिद्ध धर्म का अग्नि नृत्य अपनी पुरातन छाप को सुरक्षित रखते हुए कठिन साधना और आध्यात्मिक लोक लुभावन की बेमिसाल कड़ी है। लगभग साढ़े पांच सौ वर्ष पहले से चली आ रही यह प्राचीन लोक सांस्कृतिक परम्परा अपने रात्रि जारगण की सौंध को यथावत रखते हुए मंचीय कला के रूप में सामने आने लगी है। सिद्ध लोक संस्कृति में जागरण (अग्नि नृत्य) की महत्ता इस पंथ के लोक साहित्य में खूब अभिमण्डित है। लोकोत्सवों, पर्यटन विभाग के आयोजनों व इलोक्ट्रोनिक मीडिया के कारण इस रोमांचक ‘अग्नि नृत्य’ गूंज यदाकदा सुनाई देती है।

सिर पर गेरुआ रंग का भारी भरकम साफा, बदन पर श्वेत परिधान पहने सिद्ध गायबियों (कीर्तनकारों व वादकों) का दल विशाल नगाड़ों की थाप पर मंगलाचरण व स्तवन की परंपरा का निर्वहन करते मंच पर ऋषि मण्डली की छाप छोड़ते लगते हैं। गायबियों का ‘सबद गान’ वैदिक औंकार उद्गीत वातावरण को मनोरम बना देता है। आध्यात्मिक रस से आप्लावित यह नृत्य उपदेषात्मक, पर्यावरणीय तत्व का परिपोषक तथा स्वस्थ मनोरंजन का परिचायक है। विदेशी आक्रान्ताओं के कारण देश में 550 वर्ष पूर्व संकटकाल के समय सिद्ध समाज ने इस नृत्य को व्यैक्तिक और नैतिक गुणों के विकास, संतुलित जीवनयापन व जीव-जन्तु सहित प्राणी जगत हेतु सुरक्षा की परिकल्पना की थी, जो आज भी इस पंथ के लोगों में परिलक्षित होती है। यही नहीं इन्हें पाख्ण्डी मानकर औरंगजेब के दरबार के बुलावे पर दिल्ली में इस नृत्य की प्रस्तुति करनी पड़ी। संत रूस्तमजी की अगुआई में दिल्ली फतै कर आने पर इन सिद्धों को जागीरे भी बक्षी गईं।

नृत्य स्थल पर जल छिड़कर पवित्र किया जाता है और नृत्य परिपथ को पानी से तरबतर कर दिया जाता है जिससे नृत्य के दौरान मिट्टी न उड़े व तीव्र अग्नि की आंच से भी नर्तकों को रेत की ठण्डक से राहत महसूस हो। नृत्य से एक-डेढ़ धण्टे पूर्व (धूणें) स्थल पर बड़े-बड़े लक्कड़े करीने से जमाए जाते हैं और मन्त्रोचारण के साथ हवन विधि घी आपूरित कर अग्नि प्रज्वलित की जाती है। हवन के साथ-साथ धूणे से ज्वाला उठने के साथ ही दर्शक ‘धूणें’ के चारों ओर अपना स्थान बना लेते हैं। सामने दूसरे सिरे पर गायबी ‘गायक’ और कीर्तनकार जसनाथजी की प्रतिमा व उनके ध्वज के समीप ऊंचे तख्तों पर चन्द्राकार बैठ जाते हैं। लकड़ी के ‘धूणें’ और नर्तन सीमा में किसी अन्य को आने की अनुमति नहीं रहती है।

पूरी रात तक चलने वाले इस आयोजन में रात्रि के प्रथम प्रहर से अन्तिम प्रहर तक ‘सिरलोकों’ (सबदों) याने जसनाथजी की वाणी की ऐसी रमझल लगती हैं कि हजारों की संख्या में एकत्रित ग्रामीण लोग पूरी रात अलग-अलग रागों में गाई जाने वाली वाणी से भक्तिसागर में अवगाहन करते हैं और झूमते हैं। इनकी न राग समझ में आती है और न ही ‘सबदों’ का ज्ञान परन्तु गान लय तथा मजीरों’ की झंकार सप्त समन्दर की उठती चलती लहरों सी लगती है। ध्वनि ऐसी कर्ण प्रिय कि भक्ति रस से सराबोर हृदय को आनन्द के लोक की सैर कराती लगती है। बाल-आबाल सब कोई एकजस-एकरस हो झूमते हैं। न तो पोष की हाड कंपा देने वाली ठाड-तीव्र शीत और न चैत का ताप नृत्य दर्शकों की एकाग्रता में बाधक बनता है। बस देशी लोक संगीत-नृत्य का झरझर झरना रसप्लावित झरता रहता है।

सिद्धों का यह नृत्य केवल रात्रि मे होने वाला जागरण जाना जाता है परन्तु जब यह मंचासीन होने लगा तो अग्नि नृत्य कहलाने लगा। रात्रि जागरण के चार प्रमुख अंगो में हवन, ज्योति-आरती, गायबा (गायन-वादन) तथा अग्नि नृत्य है। ये जागरण आश्विन, माघ और चैत्र शुक्ला सप्तमी की विशेष तिथियों पर जसनाथ पंथ के 12 धाम और 84 सिद्ध बाड़ियों पर अग्नि नृत्य सहित हर वर्ष सम्पन्न होते हैं। बीकानेर में कतरियासर प्रमुख धाम है तथा लिखमादेसर, चाऊ, घिण्टाल, छाजूसर, चित्ताणा, भरपालसर, पूनरासर, पांचला, मालासर आदि सिद्धों के तथा गायबियों के प्रमुख स्थान हैं।

औंकार राग पहले तीन प्रहर तक तीन ‘सबद’ गान के बाद श्रीदेव जसनाथजी की जोत (ज्योति) की जाती है। जोत को ही श्रीदेव का प्रतीक मानकर आरती को धूणंे की चारों दिशाओं में घूमाया जाता है और अखण्ड धार से घृत होमा जाता है। आरती के दौरान नगाड़े, शंख तथा झालर की अनुगूंज अद्भुत होती है। ‘नाचणिये’ तथा ‘गायबी’ पुर जोर आरती गाते हैं। इस विधि के उपरान्त चौथे ‘सबद’ का गान प्रारम्भ होता है और ज्योंही राग में परिवर्तन आता है, जिसे राग फुरना कहते हैं-फतै-फतै का उद्घोष करते हुए नाचणिए नृत्य के लिए खड़े होते हैं और तेजी से नगाड़ों और निशान को प्रणाम करते हुए तीसरे सबद के बाद और होम जाप के तथा आरती के उपरान्त चौथा सबद - मलार राग पर ‘सतगुरु सिंवरो मोवण्या, जिण ओ संसार उपायो’ सबद गान के साथ एक-एक नर्तक खड़े हो धूणे के चारों ओर पहले चार चक्कर लगाते हैं फिर विभिन्न प्रकार के हाव भाव के साथ नगारे की ताल पर पैर उठने लगते हैं, नगाड़े पर जोर की तीन थापी पर छलांग लगाते हैं और तीन थापी पर अग्नि पर बैठते हैं। अंगारों पर नगाड़े की चाल पर ही खड़े होते हैं और धूणें के चारों ओर अलग-अलग मुद्राओं में नाचने हैं चक्कर लगाते हैं। उस समय ताल चूक जाती है तो जलने का भय रहता है। ज्योंहि ताल रुक जाती है नर्तक भी रुक जाते हैं। प्रारम्भ में गति धीमी और सहज गान होता है।

गति बढ़ती है तो कदमों की गति भी तेज होने लगती है। धीमी गति में बैठते हैं और तेज गति में बैलों के खुरों जैसे अंगारे उछालते है। नगारा वादक की दृष्टि नर्तकों के कदमों पर रहती है। नगाड़ों की थापी पर अंगारों पर खड़े होना, बैठना, अंगारों पर पैर रख कर चलना प्रारम्भ कर देते हैं। नर्तन करते हुए हाथों को आशीर्वादात्मक संकेत में ऊपर करते हैं। यह दृश्य अत्यन्त मनोरम होता है। नृत्य के उपरान्त प्रातःकालीन ‘जोत’ करने के समय ‘जम्मो जागतो’ ‘सबद’ गाते हैं। सबद गान के साथ ‘अरथाव’ चलता है। याने सबद का विश्लेषण, अन्तर कथाओं के दौरान अर्थ भाव चलता है और इसमें हुंकारिये की भूमिका देखने लायक होती है।

नृत्य में मनोरंजन के साथ-साथ आगामी वर्ष के लिए शकुन भी लिया जाता है। दो लोगों को बैल बना कर हल जोतने, आदमियों के बोरे बना कर गोठ गंवार भरने का प्रदर्शन किया जाता है। अभिनय के मापदण्ड के अनुसार यह क्रिया सही हुई तो ‘सुकाल’ और यदि कोई दोष रह गया तो जमाना कमजोर होता है। ‘अकाल’की सम्भवना व्यक्त की जाती है। अंगारों को बिखेर दिया जाता है और किस दिशा में अंगारा ज्यादा बिखरते हैं उसी से ‘सुकाल’ अकाल का अनुमान लगाया जाता है। एकत्रित समूह आधे-अधूरे बुझे अंगारों जिन्हें ‘मतीरा’ नाम दिया है एकत्रित करते हैं। प्रमुख धाम बीकानेर के कतरियासर में सुबह से धोक का कार्यक्रम चलता सो लोग धूणे, गोरखमालिया समाधि स्थल पर धोक लगाते चलते हैं। जत्थे के जत्थे धोक और मतीरे चुनने के लिए आते हैं। अनेक श्रद्धालु ‘डाबला’ तालाब जहां जसनाथ जी अवतरित हुए तथा ‘भागथळी’ दर्शनार्थ जाते हैं। राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और कच्छ से लोग यहां ऐसे अवसरों पर आते हैं और मनौति मनाते हैं। चौथ के जागरण पर पंचमी के दिन यही क्रम माता काळलदेजी के मन्दिर चलता है।

‘सिद्धो’ के नृत्य की राग शैली विलक्षण और बेजोड़ है। ‘सिद्धों’ के अतिरिक्त ऐसी राग अपवाद को छोड़कर शायद ही कहीं गाई जाती हो। संभवतः इसी वातावरण से अभिभूत होकर नर्तक अग्नि के दहकते अंगारों से गुजरते हैं, अठखेलियां करने लगते हैं। दहकते अंगारों पर ऐसे चलते हैं जैसे फूलों की सेज पर चल रहे हों। खिलौनों की तरह अंगारों को हाथों में ले लेते हैं। सबकी मौजूदगी में और सबके सामने अनहोनी को होनी बताते हैं। मुंह में लौ और अंगारा भर कर उसकी फूंहार छोड़ते हैं जैसे हाथी पानी छोड़ता है।

इस अवसर पर जसनाथजी द्वारा रचित ‘सिंम्भूधड़ो’, ‘कोड़ो’, ‘गौरखछन्दौ’, स्तवन रचनाओं का सस्वर ‘गायबा’ गायन किया जाता है। सिद्धों में ‘नमोः आदेश’ बोल अभिवादन की परम्परा है। इनका पहला ‘सिरलोक’ ‘बड़ी राग’ सिन्धु राग कहलाता है जो पहले पहर में, दूसरा सबद -सूभ राग द्वितीय प्रहर में तथा तीसरा सबद -हंसा राग तीसरे पहर में गाया जाता है। जारगण के उपरान्त इस पंथ के मतावलंब अपने तीर्थ स्थान से ‘चलू’ आचमन लेकर विदा लेते हैं। चलू के लिए कहा गया है कि यह धर्म की आण गुरु की काण, गंगा का स्नान, गोरख्नाथ का ज्ञान, ईश्वर का ध्यान, सत पुरखों का मान, अवतारों की बेल, तेतींस करोड़ देवता की प्रभा है और जसनाथजी का आचार-विचार है।

बीकानेर के पूर्व महाराजा गंगासिंह ने उनके देशी-विदेशी मेहमानों को इस विधा से कई बार परिचित कराया। यहां के मुख्य धामों से 16-16 गायबियों और नृत्यकारों को बाड़ी के महन्तों के साथ बुलवाया जाता रहा था। तत्कालीन वायसराय को भी इस नृत्य से परिचय कराया गया जिसे देख वे अवाक् रह गए। जगद्गुरु शंकराचार्य, प्रधानमंत्री स्व.पण्डित जवाहर लाल नेहरु, सोवियत संघ के बुलगानीन तथा ख्रुश्चैव, पूर्व मुख्यमंत्री राजस्थान मोहनलाल सुखाड़िया ने भी इस करिश्माई आध्यात्मिक अंगारों पर नर्तन को देखा था। पूर्व राष्ट्रपति स्व. हिदायतुल्ला खां सहित देश की कई जानी-मानी हस्तियों ने इस नृत्य को बड़ी संजीदगी वाली कला बताया।

साभार - नटवर त्रिपाठी, अपनी माटी

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