रामी सती

रामी सती का जन्म एटा के विरमनाथ के यहां हुआ जो मंडा सिद्ध थे और पहले मलकीसर में रहते थे. रामी का विवाह गोदारा सिद्ध जालमनाथ (जालूनाथजी) के साथ हुआ था जो कुछ समय पश्चात बोलाणी में नामक ग्राम में बस गये थे.
रामी सती के हृदय में अचानक ही भाव-परिवर्तन हुआ और वह प्रलाप करने लगीं. परिवार के सदस्यों ने समझा कि ये पागल हो गई हैं अतः उन्हें कोठरी में बंद कर बाहर से ताला लगा दिया. कुछ देर बाद ताला स्वतः ही टूट गया तब घरवालों ने रामी पर सत चढ़ने का विश्वास किया.
चतरनाथजी सारण ने रामी सती की छावली में इनके समाधि लेने के प्रसंग का बड़ा भावपूर्ण वर्णन किया है.
एक दिन रामी के हृदय में ज्ञान का प्रकाश आलोकित हुआ. उनके इस स्वरूप देख कर घर वालों ने उन्हें कुछ कष्ट दिये. जालमजी ने रामी से शान्त होने का अनुरोध किया पर सब व्यर्थ. अन्त में जसनाथ जी की अनुकम्पा से रामी को परिवार वालों से मुक्ति मिली और श्रृंगार क्र सती होने के लिये चलीं.
वे बोलाणी से विदा हो अपने भाई इत्यादि से मिलने एटा गई. भाइयों ने उसे सती होने से रोका लेकिन रामी ने अपनी मर्यादा की दुहाई देकर उन्हें शान्त किया और फिर वे मलकीसर पहुंची जहां उनकी सहेलियां उनके इस निश्चय को जान बहुत विचलित हुई, जालम जी ने उनसे यह निश्चय त्याग देने की बहुत विनती की पर वे अपने निश्चय पर अटल रही. अन्त में बेनीसर में वि. सं. १६२१ भाद्रपद शुक्ला तृतीया को जीवित समाधि ले ली.
लिखमादेसर के हांसोजी के प्रति इनके हृदय में गुरु भाव था.
जपो गायत्री, करो होम, इंद्र का जाप मनाया
लिखयाणों सुबस बसो, हंस गुरु दरसाया

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