जब जसवन्त लगभग बारह वर्ष के थे तो एक दिन उन्होंने अपनी माता रूपा दे से गाय चराने जाने की आज्ञा मांगी। मां ने उन्हें सहर्ष आज्ञा दी तथा चूरमा आदि साथ में जलपान के लिए दिया। जसवन्त गायों को चराते हुए भागथळी पहुंचे वहां उन्हें गोरखनाथजी के दर्शन हुए। उनके सर पर जटा थी, चरणों में खड़ाऊं तथा भगवा बाना पहने थे। गोरखनाथजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया तथा कान में गुरु मंत्र दिया। तब जसवन्त ने गुरु की परिक्रमा ली तथा उनसे प्रसाद पाया। गुरु गोरखनाथजी ने उन्हें ज्ञान सुनाया; सैली सिंगी आदि वाद्य बजाये तथा जसवन्त को नाम 'जसनाथ' दिया। तत्पश्चात गुरु शिष्य दोनों हर्षित मन से कतरियासर की ओर आये। गुरु ने शिष्य को भगवीं टोपी तथा गले में पहनने को एक काला धागा दिया। जसवन्त ने गुरु के चरण स्पर्श किये। आकाश में नगाड़े बजने लगे -- गोरखनाथजी ने उन्हें शिव भक्ति का उपदेश दिया और अन्तर्धान हो गये।
एक दिन माता रे सन्मुख आया, हाथ जोड़ने वचन फरमाया
भागथळी जाऊं मैं माता, अपनी गायां मैं चरावन जाता
चूर चूरमो डब्बे में घाल्यो, आज यशवंत वन खंडे हाल्यो
आग्या पाइने घरों से चाल्या, जावे वन में सो कणी न पाल्या
यशवंत जांणी तो वन खंडे रलिया, भागथळी में गोरक्ष मिलिया
होया दरसण अंतर मिलिया, वचन सिधां रा सार सुफलीया
पड़िया चरणों में चरणोदक लीया, गुरु भुजा तो सर ऊपर दीया
गोरक्ष नाथ जी गुरु मन भाया, कृपा गुरोरी शब्द सुनाया
दीवी परकमा सीस नमाया, लीबी परसादी भोजन पाया
दीनी आसीसां ज्ञान सूनाया, आप सत गुरु जी भलाईं आया
भगवे बानेरा दरसण पाया, शैली सिंगी मुखनाद बजाया
दीया हुकुम सो वचन पठाया, यशोनाथ ही नाम दिराया
भूरी जटा धर सर पर बानो, पगे खड़ाऊ दरसन मानो
निर्मल ज्ञान सो दीयो छे थानों, शब्द सिद्धारा सही कर मानो
गुरु चेलो मिल कतरियासर आया, धोरे कतरियासर पांव धराया
गुरु चेलेरे हरष सवाया, धर्म सनातन गोरक्ष फरमाया
भगवी टोपी कालो जी धागो, सत गुरु देव रे पाये जी लागो
साधू संता री आई सैनांणी, आदि युगादि योगी निरवाणी
शिव पारवती गणपत ने ध्याया, सुर नर देवता सुरगां से आया
स्मरण संध्या कर शंख बजाया, झालर नगारा बाजे सुरनायां
श्री गोरक्ष कला बताई, होया अलोप खबर तब पाई
(सिद्ध रामनाथ, यशोनाथ पुराण)
जियोजी सांखला ने किंचित परिवर्तन के साथ इस घटना का वर्णन अपने जलम झूलरे में किया है। जिसके अनुसार अपने पिता के खोये हुए रेवड़ को खोजने के लिये जसनाथजी जंगल में जाते हैं -- वहीँ गोरखनाथजी से भेंट होती है --
चूर चूरमो फड़के बांध्यो, हितकर माय जिमाया
रिण विजण में हेड़ चरन्ती, सोधण ने मुकलाया
भागथळी गुरु गोरख मिलिया, जिण जोगी भरमाया
स्वामी देख'र शंको आण्यो, गुरु धीरज बंधाया
काना फूंक सीस पर पंजो, सत रो सबद सुनाया
चेले रे फड़के भोजन होंतो, गुरु चेलो रळ पाया
गुरु री डीबी पाणी होंतो, चेलो कर हर पाया
गुरु अर चेलो रळमळ चाल्या, नगर नैड़ेरे आया
चेलो घिर घिर पाछो जोयो, गुरु (म्हारे) निजर न आया
कतरियासर के निकट वह स्थान जहां मीठी जाळ (पीलू) वृक्ष के नीचे गोरखनाथजी ने जसनाथजी को दीक्षा दी थी, भागथळी कहलाता है तथा कतरियासर पहुंच कर जिस धोरे पर से गोरखनाथजी अदृश्य हो गये थे - वह गोरखमालिये के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। उनके अदृश्य होने पर जसनाथजी ने उसी जाळ की एक टहनी गाद दी थी -- जो शीघ्र ही हरे भरे वृक्ष में पल्लवित हो गई -- यह वृक्ष आज भी वहां देखा जा सकता है। उसी स्थान पर जसनाथजी ने 12 वर्षों तक तप किया।
एक दिन माता रे सन्मुख आया, हाथ जोड़ने वचन फरमाया
भागथळी जाऊं मैं माता, अपनी गायां मैं चरावन जाता
चूर चूरमो डब्बे में घाल्यो, आज यशवंत वन खंडे हाल्यो
आग्या पाइने घरों से चाल्या, जावे वन में सो कणी न पाल्या
यशवंत जांणी तो वन खंडे रलिया, भागथळी में गोरक्ष मिलिया
होया दरसण अंतर मिलिया, वचन सिधां रा सार सुफलीया
पड़िया चरणों में चरणोदक लीया, गुरु भुजा तो सर ऊपर दीया
गोरक्ष नाथ जी गुरु मन भाया, कृपा गुरोरी शब्द सुनाया
दीवी परकमा सीस नमाया, लीबी परसादी भोजन पाया
दीनी आसीसां ज्ञान सूनाया, आप सत गुरु जी भलाईं आया
भगवे बानेरा दरसण पाया, शैली सिंगी मुखनाद बजाया
दीया हुकुम सो वचन पठाया, यशोनाथ ही नाम दिराया
भूरी जटा धर सर पर बानो, पगे खड़ाऊ दरसन मानो
निर्मल ज्ञान सो दीयो छे थानों, शब्द सिद्धारा सही कर मानो
गुरु चेलो मिल कतरियासर आया, धोरे कतरियासर पांव धराया
गुरु चेलेरे हरष सवाया, धर्म सनातन गोरक्ष फरमाया
भगवी टोपी कालो जी धागो, सत गुरु देव रे पाये जी लागो
साधू संता री आई सैनांणी, आदि युगादि योगी निरवाणी
शिव पारवती गणपत ने ध्याया, सुर नर देवता सुरगां से आया
स्मरण संध्या कर शंख बजाया, झालर नगारा बाजे सुरनायां
श्री गोरक्ष कला बताई, होया अलोप खबर तब पाई
(सिद्ध रामनाथ, यशोनाथ पुराण)
जियोजी सांखला ने किंचित परिवर्तन के साथ इस घटना का वर्णन अपने जलम झूलरे में किया है। जिसके अनुसार अपने पिता के खोये हुए रेवड़ को खोजने के लिये जसनाथजी जंगल में जाते हैं -- वहीँ गोरखनाथजी से भेंट होती है --
चूर चूरमो फड़के बांध्यो, हितकर माय जिमाया
रिण विजण में हेड़ चरन्ती, सोधण ने मुकलाया
भागथळी गुरु गोरख मिलिया, जिण जोगी भरमाया
स्वामी देख'र शंको आण्यो, गुरु धीरज बंधाया
काना फूंक सीस पर पंजो, सत रो सबद सुनाया
चेले रे फड़के भोजन होंतो, गुरु चेलो रळ पाया
गुरु री डीबी पाणी होंतो, चेलो कर हर पाया
गुरु अर चेलो रळमळ चाल्या, नगर नैड़ेरे आया
चेलो घिर घिर पाछो जोयो, गुरु (म्हारे) निजर न आया
कतरियासर के निकट वह स्थान जहां मीठी जाळ (पीलू) वृक्ष के नीचे गोरखनाथजी ने जसनाथजी को दीक्षा दी थी, भागथळी कहलाता है तथा कतरियासर पहुंच कर जिस धोरे पर से गोरखनाथजी अदृश्य हो गये थे - वह गोरखमालिये के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। उनके अदृश्य होने पर जसनाथजी ने उसी जाळ की एक टहनी गाद दी थी -- जो शीघ्र ही हरे भरे वृक्ष में पल्लवित हो गई -- यह वृक्ष आज भी वहां देखा जा सकता है। उसी स्थान पर जसनाथजी ने 12 वर्षों तक तप किया।
गोरखमालिया जहां जसनाथजी ने तपस्या की |
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