हांसोजी को माला-मेखळी मिलना (कूंपोजी के सबद सहित)

सिद्ध हांसोजी जी महाराज जसनाथ जी के पिता हमीर जी के छोटे भाई राजोजी के पुत्र थे। जसनाथ जी के समाधिस्थ होने के छह माह बाद इनमें श्री जसनाथ जी की ज्योति आविर्भूत हुई। जसनाथ जी ने अंतर्धान होते समय अपनी माला-मेखळी अपने प्रिय और विश्वासपात्र शिष्य हरोजी को संभलाते हुए यह निर्देश दिया था कि आज से ठीक छह माह बाद जिस व्यक्ति में मेरी ज्योति आविर्भूत होगी, यह माला-मेखळी उसे सौंप देना। जसनाथ जी से यह सुनकर हरोजी ने पूछा कि मैं उस महाभाग पुरुष को कैसे पहचानूंगा जिसमें आपकी ज्योति प्रकट होगी। यह पूछने पर जसनाथ जी ने कहा कि व्यक्ति आपकी चिटुली अंगुली पकड़ ले तब तुम जान लेना कि यह वही व्यक्ति है जिसमें मेरी ज्योति प्रकट हुई है। ठीक 6 माह बाद जसनाथ जी की ज्योति हांसोजी में प्रकट हुई। इससे पूर्व हांसोजी कतरियासर से बाहर उत्तर दिशा में पंजाब की ओर गए हुए थे। 6 माह बाद जब हांसोजी कतरियासर आए तो वहां ज्यादा समय नहीं लगा कर सीधे बम्बलू पहुंचे। वहां हांसोजी ने पहले तो हरोजी को ‘ॐ नमो आदेश’ किया, तत्पश्चात उनकी चिटुली पकड़ी तथा माला-मेखळी देने का आग्रह किया।
हिंयाळी हांसोजी प्रगट्या, निकळक रै दीवाण
माला गुरु री मेखली, ऐ साचा सैनाण
पकड़ी चिटली आंगळी, स्यामी आप सुजाण
राजोजी रा हंसराजजी, हुय बैठ्या आपाण
थांरै दिराई नीं देवां, परचै रै परवाण
राजाणी कह पांतर्या, हरमल बण्या अजाण
हरमल पढ़िया पिंडतां, थे बांचो वेद पुराण
बीड़ो चंदण म्हां कनै, कस्तूरी परमल मै’काण
हरमल फिरै उछांछला, ढूँढे रूँख फरांस
गुरु दुवारो सेवंतां, जाणो गंगा तणो न्हाण
अरघ देवां आदेश वंदावां, पौ उगंतै भाण
हरमल हांसो भेला हुया, भरिया अथग निवाण
सुण खिंया हांसो कहै, वेगो मांड पलाण
बगसी माला-मेखली, स्यामी आप सुजाण
रिण में सुरलो खेजड़ो, वै साचा ऐनाण
माही रा मेला मंडै, आवै खलक जिहान
आवै देई देवता, हिन्दू मुसळमाण
हिन्दू बांचै पोथिया, काजी पढ़े कुराण
मेला हुयसी मन सुवां, ईंट चढ़े पाखाण
रोगी आवे रिणकता, हंसता पाछा जाय
हंस गुरु फरमाइया, ‘कूंपै’ कथ्या बखाण
अर्थात निष्कलंक भगवान जसनाथजी के प्रतिनिधि हांसोजी प्रकट हुए हैं. गुरु की सच्ची निशानी रूप जो माला-मेखली थी उसे प्राप्त करने के लिए हांसोजी के रूप में स्वयं जसनाथजी ही प्रकट हुए हैं. इस पर भी हरोजी को विश्वास न होने पर हांसोजी से कहा – हे राजोजी के पुत्र हांसोजी, आप तो स्वयं जसनाथजी ही बन बैठे, किन्तु तुम्हारे कहने मात्र से मैं तुम्हें यह माला मेखली नहीं दूंगा. यदि दूंगा भी तो वह परचा होने के प्रमाण-स्वरूप ही दूंगा.
इस पर हांसोजी ने कहा कि तुम मुझे महज राजाणी कहकर भूल रहे हो. तुम बड़े अनजान बन रहे हो. तुम्हें यह ज्ञान होना चाहिए कि गुरु कि वस्तु ‘चंदन का बीड़ा’ मेरे पास है, जिसकी सुगंधि कस्तूरी कि तरह है.
परस्पर के इस विवाद के बाद हरोजी माला-मेखली को ढूंढने में व्यग्र हो उठे. जिसे उन्होंने अपने हाथ से किसी वृक्ष की पोली पोखर (कोटर) में रखा था. वह माला-मेखली हरोजी के बिना दिए ही हांसोजी के पास आ गई थी, इससे बढ़कर और क्या ‘परचा’ होगा.
हरोजी संशयमुक्त होकर सोचने लगे कि गुरुद्वारे की सेवा बंदगी गंगा स्नान के तुल्य है. इसलिए गुरुस्थान से सूर्योदय के साथ भगवान सूर्य को अर्घ्य देते हैं, ‘आदेश’ कहकर वंदना करते हैं.
तत्पश्चात् हांसोजी अपने अनुज खिंयोजी से कहते हैं – शीघ्रता से ऊँटों पर पलाण करो. मुझे जिस माला-मेखली कि अपेक्षा थी उसको सर्वज्ञ स्वामी जसनाथजी ने प्रदान कर दी है. हांसोजी ने अपने भाई खिंयोजी को संबोधित कर उस स्थान कि ओर निर्देश किया जिसकी पहचान के लिए वहां एक सूखा खेजड़ा स्थित है. हांसोजी ने कहा कि इसी जगह लिखमादेसर को आबाद कर सिद्ध धर्म-प्रचार का केन्द्र ‘जसनाथजी की बाड़ी’ स्थापित करेंगे, जहाँ प्रतिवर्ष माघ महीने में मेला भरेगा, मेले में हर विचारधारा के लोग आएंगे, यही नहीं, यहाँ हिन्दू और मुसलमान सांप्रदायिक सौहार्द्र के साथ अपनी-अपनी पुस्तकों का पाठ करेंगे.
हांसोजी उतराध जाने से पूर्व ही अन्य परिवार वालों के साथ स्वयं जसनाथजी से ‘चलू’ और ‘भगवा’ लेकर सिद्ध बन चुके थे.

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