लगभग एक शताब्दी पूर्व जब तिलक और गांधी का स्वतंत्रता आंदोलन अपना माथा उठाने को था, प्रजा परिषद की स्थापना भविष्य के गर्भ में छिपी हुई थी तब कतरियासर में सामंतवाद के विरुद्ध एक अदम्य सिंह गर्जना हुई थी। वह गर्जना करने वाले थे सिद्ध धर्म के नर-केशरी जो डील-डोल और वेश-भूषा से भी नरकेशरी लगने वाले कतरियासर ग्राम के सिद्धों के महंत जस्सूनाथजी जिन्होंने 1 अगस्त 1877 और जून 1880 को बीकानेर के तत्कालीन महाराजा श्रीडूंगरसिंहजी से अपने स्वत्व के लिए कड़ा संघर्ष किया था।
महाराजा द्वारा जब सिद्धों के आधिपत्य वाले गांव, कृषि भूमि तथा परंपरा से चली आ रही लाग-बाग की छूट अथवा अन्यान्य सुविधाओं के अधिकार छीन लेने का अनधिकार प्रयत्न हुआ तब कतरियासर के महंत जस्सूनाथजी सिद्ध ने राज्य के इस प्रकार के किसी प्रयत्न को सफल न होने देने की स्पष्ट घोषणा कर दी और उन्होंने बड़े ही आत्मविश्वास से यह भी पुनर्घोषित किया कि लाग-बाग-भूंगो, बेगार आदि का कर राज्य में नहीं भरेंगे और अधीनस्थ भूमि का स्वामित्व नहीं छोड़ेंगे। परंपरा से चली आ रही छूट और समाज की मर्यादा को नहीं मिटने देंगे। राज्य को अधिकृत भूमि की रेख नहीं भरेंगे।
सिद्ध महंत ने अपने धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए यह स्पष्ट घोषणा कर दी कि हमारे साथ यदि किसी प्रकार का अन्याय हुआ तो वह राजा और राज्य के लिए अधिक घातक सिद्ध होगा।
सिद्धों के प्रति राज्य सरकार का यह दावा था कि सिद्धों को जो भूखंड राज्य की ओर से इनायत किया हुआ है उसके अतिरिक्त जो भूमि सिद्धों के अधिकार में है उसका भूमि कर सिद्धों को देना पड़ेगा। ऐसी भूमि के मालिक सिद्ध कैसे हो सकते हैं? यह भूमि सिद्धों ने अनधिकृत रूप से अपने कब्जे में कर रखी है। इसके प्रतिकार में सिद्धों का दावा था कि राज्य द्वारा इनायत भूमि के अतिरिक्त जो भूमि हमारे पास है वह हमें पूर्व काल में उनके मालिकों द्वारा भेंट स्वरूप मिली हुई है तब उस पर राज्य का क्या उजर है जबकि ऐसी भूमि पीढ़ी-दर-पीढ़ी से हमारे अधिकार में बनी हुई है। भूंगों आदि की लाग-बाग पूर्व से ही राजाओं द्वारा हमें माफ की हुई है। इसके विपरीत वर्तमान महाराजा का अन्यथा सोचना हमारे साथ अन्याय है जिसे हम बर्दाश्त नहीं कर सकते।
सिद्धों के महंत की उक्त घोषणाएं सुनकर बीकानेर के राज्याधिकारी जो जस्सूनाथजी के प्रति सहिष्णु नहीं थे आग बबूला हो उठे। वे सिद्ध महंत को सामान्य आदमी की तरह बंदी नहीं बना सकते थे अतः उन्होंने एक बड़े षड्यंत्र द्वारा उन्हें बंदी बनाया और जूनागढ़ किले के एक बुर्ज में दाखिल कर दिया। किले के बुर्ज में उन्हीं लोगों को बंदी बनाकर रखा जाता था जो वीआईपी माने जाते थे।
अपने नेता को राज्याअधिकारियों द्वारा इस प्रकार बंदी बना लेने पर समस्त सिद्धों में एक भयंकर विस्फोटक प्रतिक्रिया हुई। धधकती आग से अठखेलियां करने वाले सिद्धों के हृदयाकाश में एक ज्वालामुखी फूट पड़ा। फलस्वरूप कतरियासर, बम्बलू, पूनरासर, लिखमादेसर आदि गांव के सिद्धों ने मरण-महोत्सव मनाने के लिए सत्याग्रह जत्थों के रूप में बीकानेर की ओर प्रयाण कर दिया। सत्याग्रही सिद्धों के ऊँटों पर नगारे और भगवा निशान बंधे थे जो युद्ध वाद्य के रूप में अपनी क्रांतिकारी चौघड़िया की उदात ध्वनि में गुंजित हो रहे थे।
इन सत्याग्रही सिद्धों का एकमात्र लक्ष्य था अपने अधिकारों की रक्षा तथा अपने श्रद्धास्पद नेता को बंधन मुक्त करवाना। इन्होंने राजमहल के सामने बड़ा ही कोलाहल पूर्ण प्रदर्शन किया तथा राजा को बार-बार अवगत कराया कि यदि हमारी बात ना मानी गई तो इसका कोई बड़ा ही भयंकर परिणाम निकलेगा। सिद्धों की ऐसी स्पष्टोक्ति का राजा तथा राज्याधिकारियों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। अतः सिद्धों ने वर्तमान पब्लिक पार्क वाले स्थान पर जीवित गड़ने के लिए भू-समाधियां खोद लीं और राज्य नीति के विरुद्ध समाधियों में बैठकर आत्मोत्सर्ग करने की ठान ली।
स्थिति के अधिक विस्फोटक होने की आशंका में ब्रिटिश सरकार के पोलिटिकल एजेंट को उनके मध्य सक्रिय हस्तक्षेप करना पड़ा और उसके कारगर प्रयत्नों से महाराजा एवं सिद्धों के बीच महत्वपूर्ण समझौता हुआ। तदनंतर महाराजा श्रीडूंगरसिंहजी ने सिद्धों के महंत जसनाथ जी के सम्मानार्थ ₹11000 की राशि व्यय कर प्रायश्चित के रूप में शंभुभेष करवाया तथा सिद्धजी से राज्य द्वारा किए गए व्यवहार के लिए क्षमा मांगी।
यद्यपि महंत जस्सूनाथजी ने बीकानेर राज्य में अन्न ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा ली थी किंतु इस अवसर पर महारानी साहिबा के विशेष अनुरोध करने पर सिंघाड़े के आटे से तैयार हलवे के कुछ ग्रास लिए। महाराजा ने हाथी की सवारी से उनकी शोभा-यात्रा निकाली और चांदी की छड़ी, चंवर, जाजम आदि का लवाजमा उन्हें भेंट किया। अपने अधिकारों के लिए बीकानेर राज्य से संघर्ष करने वाले महंत जस्सूनाथ जी ने विक्रम संवत् 1947 में बीकानेर स्थित सिद्धाश्रम में अपने पार्थिव शरीर का परित्याग किया। उनकी समाधि पर एक छोटा सा मंदिर बना हुआ था जिसमें लेख उत्खनित देवली स्थापित थी। अब उस जगह एक बड़ा मंदिर बनाया गया है। महंत जस्सूनाथजी अपने त्यागमय कर्तृत्व के लिए आज भी स्मरण किए जाते हैं तथा सिद्ध धर्म में देवता के रूप में पूजे जाते हैं। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष नवमी को उनकी स्मृति में जागरण लगता है उनकी महिमा में कई रचनाएं सिद्धों में प्रचलित है।
महाराजा द्वारा जब सिद्धों के आधिपत्य वाले गांव, कृषि भूमि तथा परंपरा से चली आ रही लाग-बाग की छूट अथवा अन्यान्य सुविधाओं के अधिकार छीन लेने का अनधिकार प्रयत्न हुआ तब कतरियासर के महंत जस्सूनाथजी सिद्ध ने राज्य के इस प्रकार के किसी प्रयत्न को सफल न होने देने की स्पष्ट घोषणा कर दी और उन्होंने बड़े ही आत्मविश्वास से यह भी पुनर्घोषित किया कि लाग-बाग-भूंगो, बेगार आदि का कर राज्य में नहीं भरेंगे और अधीनस्थ भूमि का स्वामित्व नहीं छोड़ेंगे। परंपरा से चली आ रही छूट और समाज की मर्यादा को नहीं मिटने देंगे। राज्य को अधिकृत भूमि की रेख नहीं भरेंगे।
सिद्ध महंत ने अपने धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए यह स्पष्ट घोषणा कर दी कि हमारे साथ यदि किसी प्रकार का अन्याय हुआ तो वह राजा और राज्य के लिए अधिक घातक सिद्ध होगा।
सिद्धों के प्रति राज्य सरकार का यह दावा था कि सिद्धों को जो भूखंड राज्य की ओर से इनायत किया हुआ है उसके अतिरिक्त जो भूमि सिद्धों के अधिकार में है उसका भूमि कर सिद्धों को देना पड़ेगा। ऐसी भूमि के मालिक सिद्ध कैसे हो सकते हैं? यह भूमि सिद्धों ने अनधिकृत रूप से अपने कब्जे में कर रखी है। इसके प्रतिकार में सिद्धों का दावा था कि राज्य द्वारा इनायत भूमि के अतिरिक्त जो भूमि हमारे पास है वह हमें पूर्व काल में उनके मालिकों द्वारा भेंट स्वरूप मिली हुई है तब उस पर राज्य का क्या उजर है जबकि ऐसी भूमि पीढ़ी-दर-पीढ़ी से हमारे अधिकार में बनी हुई है। भूंगों आदि की लाग-बाग पूर्व से ही राजाओं द्वारा हमें माफ की हुई है। इसके विपरीत वर्तमान महाराजा का अन्यथा सोचना हमारे साथ अन्याय है जिसे हम बर्दाश्त नहीं कर सकते।
सिद्धों के महंत की उक्त घोषणाएं सुनकर बीकानेर के राज्याधिकारी जो जस्सूनाथजी के प्रति सहिष्णु नहीं थे आग बबूला हो उठे। वे सिद्ध महंत को सामान्य आदमी की तरह बंदी नहीं बना सकते थे अतः उन्होंने एक बड़े षड्यंत्र द्वारा उन्हें बंदी बनाया और जूनागढ़ किले के एक बुर्ज में दाखिल कर दिया। किले के बुर्ज में उन्हीं लोगों को बंदी बनाकर रखा जाता था जो वीआईपी माने जाते थे।
अपने नेता को राज्याअधिकारियों द्वारा इस प्रकार बंदी बना लेने पर समस्त सिद्धों में एक भयंकर विस्फोटक प्रतिक्रिया हुई। धधकती आग से अठखेलियां करने वाले सिद्धों के हृदयाकाश में एक ज्वालामुखी फूट पड़ा। फलस्वरूप कतरियासर, बम्बलू, पूनरासर, लिखमादेसर आदि गांव के सिद्धों ने मरण-महोत्सव मनाने के लिए सत्याग्रह जत्थों के रूप में बीकानेर की ओर प्रयाण कर दिया। सत्याग्रही सिद्धों के ऊँटों पर नगारे और भगवा निशान बंधे थे जो युद्ध वाद्य के रूप में अपनी क्रांतिकारी चौघड़िया की उदात ध्वनि में गुंजित हो रहे थे।
इन सत्याग्रही सिद्धों का एकमात्र लक्ष्य था अपने अधिकारों की रक्षा तथा अपने श्रद्धास्पद नेता को बंधन मुक्त करवाना। इन्होंने राजमहल के सामने बड़ा ही कोलाहल पूर्ण प्रदर्शन किया तथा राजा को बार-बार अवगत कराया कि यदि हमारी बात ना मानी गई तो इसका कोई बड़ा ही भयंकर परिणाम निकलेगा। सिद्धों की ऐसी स्पष्टोक्ति का राजा तथा राज्याधिकारियों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। अतः सिद्धों ने वर्तमान पब्लिक पार्क वाले स्थान पर जीवित गड़ने के लिए भू-समाधियां खोद लीं और राज्य नीति के विरुद्ध समाधियों में बैठकर आत्मोत्सर्ग करने की ठान ली।
स्थिति के अधिक विस्फोटक होने की आशंका में ब्रिटिश सरकार के पोलिटिकल एजेंट को उनके मध्य सक्रिय हस्तक्षेप करना पड़ा और उसके कारगर प्रयत्नों से महाराजा एवं सिद्धों के बीच महत्वपूर्ण समझौता हुआ। तदनंतर महाराजा श्रीडूंगरसिंहजी ने सिद्धों के महंत जसनाथ जी के सम्मानार्थ ₹11000 की राशि व्यय कर प्रायश्चित के रूप में शंभुभेष करवाया तथा सिद्धजी से राज्य द्वारा किए गए व्यवहार के लिए क्षमा मांगी।
यद्यपि महंत जस्सूनाथजी ने बीकानेर राज्य में अन्न ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा ली थी किंतु इस अवसर पर महारानी साहिबा के विशेष अनुरोध करने पर सिंघाड़े के आटे से तैयार हलवे के कुछ ग्रास लिए। महाराजा ने हाथी की सवारी से उनकी शोभा-यात्रा निकाली और चांदी की छड़ी, चंवर, जाजम आदि का लवाजमा उन्हें भेंट किया। अपने अधिकारों के लिए बीकानेर राज्य से संघर्ष करने वाले महंत जस्सूनाथ जी ने विक्रम संवत् 1947 में बीकानेर स्थित सिद्धाश्रम में अपने पार्थिव शरीर का परित्याग किया। उनकी समाधि पर एक छोटा सा मंदिर बना हुआ था जिसमें लेख उत्खनित देवली स्थापित थी। अब उस जगह एक बड़ा मंदिर बनाया गया है। महंत जस्सूनाथजी अपने त्यागमय कर्तृत्व के लिए आज भी स्मरण किए जाते हैं तथा सिद्ध धर्म में देवता के रूप में पूजे जाते हैं। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष नवमी को उनकी स्मृति में जागरण लगता है उनकी महिमा में कई रचनाएं सिद्धों में प्रचलित है।
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