सती-द्वय का अवतार एवं सती काळलदे की सगाई

सती काळलदे का प्रादुर्भाव हरियाणा प्रांत के चूड़ीखेड़ा (हिसार) में हुआ था। सिद्ध रामनाथ परमहंस ने इनका प्रादुर्भाव विक्रम संवत 1542 आश्विन शुक्ल चतुर्थी को होना बताया है। सती काळलदे को सिद्ध धर्म में एक महान सती माना गया है। प्यारलदे इनकी बहन का नाम था। इनकी मान्यता भी सिद्ध धर्म में है किंतु यह मालासर-पांचला की परंपरा में विशेष मान्यता रखती हैं। इन बहनों के पिता का नाम नेपाल जी बेनीवाल था। उनके हंसा तथा बोयत नाम के पुत्रों का उल्लेख सिद्ध साहित्य में हुआ है। नेपाल जी बेनीवाल के घर काळलदे के प्राकट्य से 6 माह पूर्व एक कन्या का जन्म हुआ था। वह कन्या बड़ी ही सुंदर थी अतः उसका नाम क्या प्यारलदे रखा गया। एक दिन प्रातः माता ने अपनी 6 माह की कन्या प्यारलदे को स्तनपान करवाकर पालने में लेटा दिया और स्वयं अपने गृह कार्य में लग गई। सूर्योदय के समय जब देखा गया तो उसे गौरांग कन्या प्यारलदे के साथ तदनुरूप ही एक और कन्या पालने में लेटी हुई है। माता-पिता को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ और ऐसा होना स्वाभाविक भी था। यह घटना सारे ग्राम में द्रुतगति से फैल गई तथा लोग इस आश्चर्यजनक घटना को सुनकर नेपाल जी के घर एकत्र होने लगे। माता-पिता को जब पहचानने में यह कठिनाई हुई कि इनमें से कौन सी तो प्रसूता कन्या है तथा कौन सी सद्य प्रकटित है। तब इन में से एक कन्या ने श्याम वर्ण धारण कर लिया जो संभवत है प्रकट होने वाली कन्या थी। श्यामवर्ण कन्या ही काळलदे के नाम से संबोधित होने लगी। नेपाल जी बेनीवाल के घर के सामने जो गवाड़ था उसमें एक बहुत बड़ा प्रस्तर खंड रखा गया था। उसमें धान कूटने के लिए कई ओखल बने हुए थे। उनमें से कई ओखल बहुत ही अच्छे ढंग से खुदे हुए थे। ग्रामबालाएं इन्हीं ओखलों में अपना धान कुटा करती थी। ओखलों में धान कूटने की बारी को लेकर स्त्रियों में प्रायः विवाद हो जाया करता था। एक दिन इस विवाद ने उग्र रूप धारण कर लिया। सती काळलदे ने प्रतिदिन के इस विवाद के बारे में सोच कर कि इन ओखलों के कारण ही ग्राम की स्त्रियां प्रायः लड़-झगड़ पड़ती है जो सर्वथा अनुचित है। निदान निकाल, झगड़े की जड़ प्रस्तरखंड को उठाकर अपने घर के पिछवाड़े में लाकर डाल दिया, कि ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी। वह पत्थर इतना बड़ा और वजनदार था कि एक आदमी की तो औकात ही क्या जो उसे उठा ले, उसे तो 20 आदमी मिलकर उठाने में समर्थ नहीं थे। अभूतपूर्व कार्य को देखकर नेपाल जी को बड़ा विस्मय हुआ साथ ही उन्हें यह भी चिंता हुई कि इसके जोड़े का वर कहाँ मिलेगा।
साधु लाल नाथ जी ने अपने लघु ग्रंथ 'जीव समझौतरी' में एक जगह लिखा है कि पार्वती प्यारी सती, काळल सो हिंगलाज' अर्थात प्यारलदे जहां पार्वती स्वरुप है, वहीँ सती काळलदे हिंगलाज माता का अवतार है। एक समय की बात है कि नेपाल जी के निकटस्थ परिवार में विवाह था, जहां परिवार की अन्य महिलाओं के साथ काळलदे और प्यारलदे को भी जाना था किंतु काळलदे वस्त्र-आभूषण धारण करने एवं साज-श्रृंगार करने में बहुत विलंब कर रही थी, परिवार की महिलाओं ने काळलदे को विलंब करते देखकर कई बार आवाज दी, किंतु काळलदे कोई जवाब नहीं दे रही थी। स्त्रियों की व्यग्रता को देखकर स्वयं नेपाल जी काळलदे को शीघ्रता से महिलाओं के साथ जाने का कहने के लिए जब उसके कक्ष में गए, तब वह वहां का विलक्षण दृश्य देखकर आश्चर्यचकित रह गए। काळलदे के कक्ष में पलंग पर साज श्रृंगार युक्त सिंहनी बैठी हुई थी। काल के इस विकराल रूप को देखकर नेपाल जी स्तब्ध रह गए। वे दबे पांव कक्ष से बाहर निकले। उन्होंने बाहर आकर देखा तो काळलदे परिवार की महिलाओं के साथ विवाह वाले घर की ओर जा रही थी। नेपाल जी उस दिन से सती काळलदे को अवतार मानने लगे। सती के इन विलक्षण चमत्कारों को देखकर नेपाल जी इस बात से चिंतित रहने लगे कि इसके लिए ऐसा समकक्ष वर कहां मिलेगा। नेपाल जी ने एक ब्राह्मण के समक्ष अपनी समस्या को प्रकट किया तो ब्राह्मण ने कहा कि कतरियासर के हमीर जी ज्याणी के इकलौते पुत्र में ऐसी कई अपूर्व क्षमताएं हैं। ब्राह्मण द्वारा वर का परिचय पाकर नेपाल जी कतरियासर आए। नेपाल जी कतरियासर में हमीर जी के घर पहुंचने से पहले गांव के कुए पर थोड़ा सुस्ताने के लिए ठहर गए थे। संयोग से उसी दिन बीकानेर राज्य के दो हाथी, जिन्हें चरने के लिए जंगल में छोड़ा गया था, पानी पीने के लिए कतरियासर के कुए पर आए और पानी पीकर परस्पर लड़ने लगे। हाथियों के लड़ने से कुएं के आसपास के लोग ऊंचे ऊंचे धोरों पर चढ़ गए और जो कुएं के पास थे, दौड़ कर कुएं पर चढ़ गए। इधर थोड़ी दूर कुछ बालक खेल रहे थे। उनमें से एक बालक जसवंत भी थे। जब उन्हें मालूम हुआ कि टाडे में दो हाथी लड़ रहे हैं, तो बालक जसवंत दौड़कर वहां आये और लड़ते हुए हाथियों के कान पकड़कर उनको अलग-अलग कर दिया। यह घटना स्वयं नेपाल जी ने जब अपनी आंखों से देखी तो उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि ब्राह्मण ने जसवन्त का जो परिचय दिया था वह सत्य था। नेपाल जी हमीर जी के घर आए तथा रामरमी के पश्चात नेपाल जी ने अपने मंतव्य से हमीर जी को अवगत कराया। उस समय जसनाथ जी की अवस्था 10 वर्ष की थी। नेपाल जी में वांछित गुणों का अनुभव कर हमीर जी ने उन्हें अपना समधी बनाना उचित समझा। नेपाल जी ने लोक रीति के अनुसार बालक जसवंत के ललाट पर कुमकुम का तिलक किया और उनके कर कमलों में रुपया सहित श्रीफल अर्पित किया।

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