प्रथम महंत जागोजी

सिद्धाचार्य श्रीदेव जसनाथजी के समाधि लेकर अन्तर्धान होने के पश्चात् जागोजी कतरियासर ‘धाम के महंत का टिकायत सिद्ध' के पद पर नियुक्त हुए थे। कतरियासर के महंतों की वंशावली में जागोजी का नाम शीर्षस्थान पर है तथा कतरियासर के ‘महंत’ अपने को जागोजी का वंशज मानते हैं। अतः कतरियासर के महंत के रूप में जागोजी की प्रतिष्ठा एवं मान्यता है। जागोजी श्रीजसनाथजी के वरदान से हमीरजी की पली रूपादेजी की कोख से उत्पन्न हुए थे। इसकी पुष्टि में लोगों का कथन है कि जब श्रीदेव जसनाथजी गृह परित्याग कर तपश्चर्या में ‘गोरखमालिये' पर आसीन हो गए थे तब उनके पिता हमीरजी ने उनके सामने अपनी व्यथा भरी करुणा-कथा प्रकट की और कहा था कि तुम्हारे वनवासी हो जाने से मेरे जीवन का सबल आधार ही टूट गया है। मेरी मधुर आशाओं पर तुषारापात हो गया है। न तो मेरे वंश की प्रणाली अंकुरित हुई और न ही मेरी अतुल धनराशि का ही कोई मेरा अपना उत्तराधिकारी व उपभोक्ता ही रह गया है। हमारी जीवन-नैया के तो तुम्हीं एक मात्र खेवैया थे। हम तो तुम्हारे आश्रय से ही अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत कर रहे थे। अब हमें कौन सहारा देगा।'
हमारी प्रबल उत्कंठा थी कि हम अपने ‘लाल' का बड़ी ही धूमधाम से विवाह करेंगे तथा वधू को अपने घर के आंगन में चलते-फिरते देखेंगे। हमारी यह संजोई हुई चाह थी कि हमारा कुल-दीपक हमारे अंधेरे कौने में प्रकाश भर देगा किन्तु अब तो हम एकमात्र उदासी की अकाट्य जंजीरों में ही जकड़े रह गये हैं।'
हमीरजी ने विरह विगलित होकर श्रीजसनाथजी से कहा कि अब तुम्हीं हमें रास्ता दिखाओ जिससे हमारी वेदना भरी निशा का अंत हो। हमारे इस अपार क्षोभ की निवृत्ति हो।'
हमीरजी कि इस वेदना को सुनकर, कहते हैं कि सिद्ध जसनाथजी ने अपने पिता हमीरजी से कहा कि आप इतने दुखी न हों, मैंने जो किया है वह तो जीवों के कल्याणार्थ सार्वजनीन हित में ही किया है, वह तो आपके और आपके ‘जाणी' वंश के लिए भी यशोवर्द्धन का कारण है। आप माया जनित मोह के वशीभूत होने के कारण यह सहसा समझ नहीं पायेंगे। तदुपरांत भी मैं आपकी मनःस्थिति को भली भान्ति जानता हूँ जो सर्वथा स्वाभाविक है।
श्रीदेव जसनाथजी ने कहा, 'आप आश्वस्त हो जाइये, आपके घर यथा समय पुत्ररत्न जन्म लेगा जो आपकी व्यावहारिक और सांसारिक कामनाओं एवं भावनाओं को संपन्न करेगा' कहते हैं श्रीजसनाथजी के 'वरदान' के फल हमीरजी के घर जागोजी का जन्म हुआ। श्रीजसनाथजी के ‘जागेगा' कहे अनुसार उस बालक का नाम जागोजी रखा गया। इस कथा के अनुसार जागोजी श्रीदेव जसनाथजी के ‘सगे’ अनुज थे। जसनाथी रचनाकारों ने श्रीजसनाथजी के हरोजी, हांसोजी, टोडरजी आदि शिष्यों को यत्र-तत्र याद किया है लेकिन उस ढंग से जागोजी का उल्लेख नहीं मिलता। इसका कारण संभवतः उनकी बाल्यावस्था रही हो।
श्रीदेव जसनाथजी के उत्तराधिकारी के रूप में जागोजी कतरियासर के महंत-पद पर अभिषिक्त हुए थे, इसमें किसी प्रकार का मतभेद नहीं है। जागोजी श्रीदेव जसनाथजी के प्रादुर्भाव के बारह वर्ष बाद हमीरजी के हुए थे। श्रीदेव के समाधि लेते समय जागोजी उपस्थित थे या नहीं थे, इस सम्बन्ध में कोई प्रवाद प्रचलित नहीं है। यदि जागोजी उस समय वहाँ उपस्थित थे तो श्री अपनी ‘माला-मेखली' हरोजी को क्यों सौंपी ? इस सम्बन्ध में विचार है कि जागोजी उस समय केवल ११-१२ वर्ष के बालक ही थे तथा हरोजी हर तरह से श्रीदेव के परम विश्वास-पात्र और विचारों में परिपक्व थे। इसीलिए श्रीदेव ने अपनी ‘माला-मेखळी' हरोजी के ही सुपुर्द की। उन्हें यह बता दिया था कि जिस व्यक्ति में मेरी ज्योति प्रकट हो उसे यह लौटानी है। वह प्रथम साक्षात्कार में ही तुम्हारे बायें हाथ की कनिष्ठिका अंगुली पकड़ लेगा।
कतरियासर धाम' के उत्तराधिकारी जागोजी के अतिरिक्त दूसरा कौन हो सकता था। अतः परिवार जनों और अनुयायियों ने उत्तराधिकार की स्थिति बनने पर जागोजी को यह उत्तरदायित्व पूर्ण पद दे दिया। इसीलिए ‘श्रीधाम कतरियासर के महंतों में जागोजी प्रथम महन्त बनने का गौरव प्राप्त कर सके।

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