सिद्ध पांचोजी टांडी

सिद्ध पांचोजी प्रसिद्ध सिद्ध रुस्तमजी के शिष्य थे। जिस समय सिद्ध रुस्तमजी रुस्तम धोरा पर तप कर रहे थे, उस समय अन्य शिष्यों की भांति भी गरु के सानिध्य में साधनारत थे। सं.1736 वि. ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष में सिद्ध रुस्तमजी बादशाह के विशेष आमन्त्रण पर दिल्ली गये थे तब पांचोजी भी उनके साथ थे। यही कारण है कि सिद्ध रुस्तमजी के दस 'नफरों' में पांचोजी 'नफर' गिने जाते हैं। ये पारवेड़ा (तह. सुजानगढ़, चूरू) के टांडी सिद्ध थे। पारवेडा गाँव की 'जसनाथजी की बाड़ी' की स्थापना करने का श्रेय पांचोजी को ही है। इन्होंने ही यहाँ के लूणोजी को जसनाथी बनने की प्रेरणा दी थी। लूणोजी लिखमादेसर के महंत धनराजजी से 'चळू' व 'धागा' धारण कर 'जसनाथी' बने किन्तु इन्होंने 'बाना' (भगवा) धारण नहीं किया। पूर्व जाति-संज्ञा में ही बने रहे। लूणोजी की धर्मपली कुसुमासती और इनके पुत्र अणदोजी एवं राधोजी ने लिखमादेसर के उक्त महंतजी से 'बाना' भी धारण कर लिया और 'सिद्ध' बन गए। राज्य की ओर से सिद्धों से किसी भी प्रकार की 'लागबाग' नहीं ली जाती थी। पारेवड़ा ग्राम के ठाकुर को अणदोजी आदि का 'बाना' लेना भला कैसे पसंद आता, उन्होंने अपने उसी क्रम में इनसे 'लागबाग' लेनी चाही, परन्तु कुसुमासती की प्रेरणा व परामर्श से अणदोजी तथा राधोजी ने ठाकुर को लागबाग देने से स्पष्ट अस्वीकार कर दिया कि 'हम अपने हाथों से तो तुम्हें 'कर' देंगे नहीं, तुम भले ही अपने हाथों से हमारी 'कोठियों से 'बाजरी' (अन्न) निकाल कर ले जावो।' अणदो और राधो ने ठाकुर को चेतावनी देते हुए कहा कि ऐसा करने से पहले तुम अपना भला-बुरा सोच लेना, ऐसा न हो कि तुम्हें 'लेने के देने पड़ जायें।' ठाकुर ने उनकी चेतावनी की कोई परवाह नहीं की। ठाकुर ने अपने आदमियों को आज्ञा दी कि 'इनकी तरफ जितना 'कर' बकाया है, उतने की उनकी कोठियों से बाजरी निकाल कर ले आओ।' ठाकुर के कर्मचारी उधर उनके घर जाकर उनकी कोठी से बाजरी निकाल कर ले जाने लगे और उधर अचानक ही ठाकुर का इकलौता लड़का तथा उत्तम नस्ल की अत्यधिक मूल्य वाली एक घोड़ी बेहोश होकर गिर पड़े। इस दुर्घटना से ठाकुर बेतहाशा घबरा उठा और अपने कामदारों से 'सिद्धों' के घर से अन्न लाना रुकवा दिया। उसने 'सिद्धों' से अपने पुत्र और घोड़ी के स्वस्थ हो जाने की प्रार्थना की। 'सिद्धों' ने कहा कि 'आप यदि पारेवड़ा के सभी 'सिद्ध-परिवारों' से भविष्य में ऐसी 'कर वसूली' की छूट कर दें तो आपका पुत्र और घोड़ी स्वस्थ हो जायेंगे अन्यथा इनके प्राण-पंखेरू उड़ने में अधिक विलम्ब नहीं है।' ठाकुर ने 'सिद्धों' की बात मान ली और इस प्रकार अन्न वसूली निषिद्ध का पट्टा लिखकर दिया। 'सिद्धों' की इस साहसिक घटना के पीछे सिद्ध पांचोजी की भी प्रेरणा रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं। पांचोजी ने पारेवड़ा स्थित 'जसनाथजी की बाड़ी' में जीवित समाधि ली। इनके समाधि-स्थल पर एक सामान्य किन्तु सुन्दर देवालय बना हुआ है। पांचोजी के समाधि-स्थल पर प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल षष्ठी को जागरण लगता है तथा उदय तिथि सप्तमी को हवन एवं प्रसाद होता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि इसी तिथि को पांचाजी ने समाधि ली थी। पांचोजी का एक 'कुरजां' नाम का ‘सबद', एक छंद, 'कर्णकथा' और 'आम्बारस' नाम की रचनाएं संकलित हैं।
छंद 
गई मील मरजाद, गई सब ल्होड़ बडाई
मंदा वरसै मेह, घटी देवों संकळाई
बिरमा वचन गया, कुबध कळजुग में आई
झूठ कपट अन्याय, अरथ रत लोग लुगाई
गया हँस गई पदमणी, गया गिवरां सिर मोती
गई वासग सिरमणी, वा मोल अमोलख होती
जोधा गया बाणावळी, देता दान होती दया
'पांचोजी' कहै रे परमगुरु, कळजुग में ऐता गया 

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