जसनाथजी ने 12 वर्ष की आयु में संवत् 1551 में सिद्ध धर्म की स्थापना की और इसके लिए 36 नियम निर्धारित किए।
इनके बारे में कहा जाता है कि – “नेम छत्तीस ही धर्म के कहे गुरु जसनाथ, या विध धर्म सुधारसी, भव सागर तिर जात।”
इन नियमों के जरिए जसनाथजी महाराज थोड़े शब्दों में ही वेदों और शास्त्रों का सार कह गए। सबसे अच्छी बात यह थी कि ये नियम जनसाधारण की मायड़ भाषा में थे। ये 36 नियम निम्नलिखित हैं-
1. जो कोई जात हुए जसनाथी
2. उत्तम करणी राखो आछी
3. राह चलो, धर्म अपना रखो
4. भूख मरो पण जीव ना भखो
5. शील स्नान सांवरी सूरत
6. जोत पाठ परमेश्वर मूरत
7. होम जाप अग्नीश्वर पूजा
8. अन्य देव मत मानो दूजा
9. ऐंठे मुख पर फूंक ना दीजो
10. निकम्मी बात काल मत कीजो
11. मुख से राम नाम गुण लीजो
12. शिव शंकर को ध्यान धरीजो
13. कन्या दाम कदै नहीं लीजो
14. ब्याज बसेवो दूर करीजो
15. गुरु की आज्ञा विश्वंत बांटो
16. काया लगे नहीं अग्नि कांटो
17. हुक्को, तमाखू पीजे नाहीं
18. लसन अर भांग दूर हटाई
19. साटियो सौदा वर्जित ताई
20. बैल बढ़ावन पावे नाहीं
21. मृगां बन में रखत कराई
22. घेटा बकरा थाट सवाई
23. दया धर्म सदा ही मन भाई
24. घर आयां सत्कार सदा ही
25. भूरी जटा सिर पर रखीजे
26. गुरु मंत्र हृदय में धरीजे
27. देही भोम समाधि लीजे
28. दूध नीर नित्य छान रखीजे
29. निंद्या, कूड़, कपट नहीं कीजे
30. चोरी जारी पर हर ना दीजे
31. राजश्वला नारी दूर करीजे
32. हाथ उसी का जल नहीं लीजे
33. काला पानी पीजे नाहीं
34. नाम उसी का लीजे नाहीं
35. दस दिन सूतक पालो भाई
36. कुल की काट करीजे नाहीं
यहाँ देखा जाए तो ‘जो कोई जात हुए जसनाथी’ से वस्तुतः एक ही नियम ‘जो भी जसनाथी धर्म का पालन करेगा, वह सदैव उत्तम कार्य करेगा’ बनता है। नियमों की संख्या में इस कमी का कारण लगातार मौखिक परम्परा के रूप में प्रचलित होने से कुछ नियमों यथा ‘पिंडा दान कदै ना कीजे’ (श्राद्ध तर्पण का निषेध) जैसे नियमों का जन स्मृति से लोप है। पहले ही नियम से स्पष्ट है की जसनाथ जी ने कर्मवाद को महत्त्व दिया है। ‘राह चलो, धर्म अपना रखो’ के माध्यम से जसनाथजी ने पथभ्रष्ट होने से बचने एवं स्वधर्म पालन का निर्देश दिया है जो तत्कालीन मुस्लिम शासन में लम्पट धर्मांतरण के विरोध में था, आज के भौतिकता वादी युग में पश्चात्यीकरण के सम्बन्ध में प्रासंगिक है। ‘गुरु मंत्र हृदय में धरीजे’ के जरिए भी जसनाथजी ने इसी बात की चेतावनी दी है। ‘भूख मरो पण जीव ना भखो’ जसनाथजी ने अहिंसा पर बल देते हुए कहा है की किसी जीव की हत्या करने से अच्छा है भूख मरना, इससे सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि जसनाथजी प्राणियों के प्रति कितने संवेदनशील थे। इस बात का एक सबूत यह भी है कि जसनाथजी द्वारा सर्वाधिक नियम इसी विषय पर है। प्राणिमात्र के प्रति दया भाव के अनुरूप ‘दया धर्म सदा ही मन भाई’ उस भाव को यथार्थ से जोड़ने हेतु पशुओं को साटियों/कसाइयों को बेचने की बजाय साथी पशुपालकों को बेचने का निर्देश ‘साटियो सौदा वर्जित ताई’, पशु क्रूरता को रोकने हेतु बछड़ों के बधियाकरण रोकना ‘बैल बढ़ावन पावे नाहीं’, वन्य जीवों विशेषतः स्थानीय छोटे हिरणों (चिंकारा) के संरक्षण का निर्देश ‘मृगां वन में रखत कराई’ और इसी क्रम में घेटों और अमर बकरों के लिए थाट की व्यवस्था का निर्देश ‘घेटा बकरा थाट सवाई’ दिया है। ‘शील स्नान सांवरी सूरत’ में जसनाथ जी ने शारीरिक स्वच्छता के महत्व को समझते हुए नित्य प्रतिदिन स्नान का निर्देश दिया। उल्लेखनीय है कि जब पड़ौसी गांव मौलानिया के चौधरी ने जसनाथजी से अपने ऊँट के बारे में पूछा तो जसनाथजी ने उससे नित्य स्नान का वचन लिए। शरीर के अलावा व्यक्ति का मन भी शुद्ध होना चाहिए इसी विश्वास के साथ जसनाथ जी ने लोगों को ‘निंद्या, कूड़, कपट नहीं कीजे’ निर्देश दिया है। लोगों की संपत्ति पर कुदृष्टि ना डालने का कहते हुए ‘चोरी जारी पर हर ना दीजे’ का निर्देश। ‘जोत पाठ परमेश्वर मूरत’ तथा ‘होम-जाप अग्नीश्वर पूजा’ सिद्ध धर्म की पूजा पद्धति का आधार बने। ‘अन्य देव मत मानो दूजा’ के जरिए जसनाथजी ने एक ही नियम से सिद्धों को एकेश्वरवाद को अपनाने को कह दिया। अग्नि मानव के प्रथम आविष्कारों में से एक है, यह प्रागैतिहासिक काल से हमारे काम आ रही है, गंगा की तरह सब अशुद्धियों को नष्ट करके भी स्वयं अपवित्र नहीं होती, अतः उच्छिष्ट मुख से इसमें फूंक देकर इसके अपमान को ‘ऐंठे मुख पर फूंक ना दीजो’ के जरिए निषेध किया। जो मनुष्य निर्जीव वस्तुओं, पशु-पक्षियों के प्रति भी कृतज्ञता रखेगा वह मानव समाज के लायक बनेगा। प्रकृतिपूजक समाजों का मर्म यही है। ‘निकम्मी बात काल मत कीजो’ में समय के मूल्य और शब्दों के महत्त्व को समझते हुए गुरु महाराज ने व्यक्ति को मितभाषी बनने और व्यर्थ प्रलाप से बचने की सलाह दी है। ‘मुख से राम नाम गुण लीजो’ तथा ‘शिवशंकर को ध्यान धरीजो’ में जसनाथजी ने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का निर्देश देते हुए उसके यशोगान तथा ध्यान का निर्देश दिया। तत्कालीन समाज में जब कन्या दान का वैदिक संस्कार पतित होकर विक्रय का रूप ले चुका था, लोग रीत के पैसे के लिए अपनी बेटियों का बेमेल विवाह कर रहे थे, जसनाथ जी ने मुक्तिदाता के रूप में ‘कन्या दाम कदै नहीं लीजो’ कहा। उस समय जब सूदखोर अनाप-शनाप ब्याज लेकर किसानों के खेत हड़प रहे थे, जसनाथजी ने ब्याज से दूर रहने का निर्देश ‘ब्याज बसेवो दूर करीजे’ दिया। जसनाथजी ने सिद्ध धर्म के अबाध प्रचार-प्रसार का निर्देश देते हुए कहा कि ‘गुरु की आज्ञा विश्वंत बांटो, काया लगे नहीं अग्नि कांटो’। ‘हुक्को, तमाखू पीजे नाहीं’ के जरिए जसनाथजी ने तम्बाकू सेवन एवं धुम्रपान के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावों को देखते हुए इसका निषेध कर दिया, ‘लसन अर भांग दूर हटाई’ में तामसिक पदार्थों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। इतना ही नहीं ‘काला पानी पीजे नाहीं, नाम उसी का लीजे नाहीं’ में मद्यपान का निषेध करते हुए जसनाथ जी ने इसका नामोच्चारण तक उचित नहीं समझा। नशा मुक्ति पर इतना जोर समाज को पतन से बचाकर उसके बहुमुखी विकास के लिए ही था। ‘अतिथि देवो भवः’ की भारतीय परम्परा को जसनाथजी ने ‘घर आयां सत्कार सदा ही’ जरिए पुनर्स्थापित किया। ‘भूरी जटा सिर पर रखीजे’ झड़ूला संस्कार से सम्बन्धित है। पर्यावरण में वृक्षों के महत्त्व को देखते हुए, उन्हें बचाने हेतु जसनाथजी ने दाह संस्कार की जगह ‘देही भोम समाधि लीजे’ में समाधि के प्रचलन को प्रोत्साहित किया। स्वच्छ भोजन के महत्त्व को जानते हुए जसनाथ जी ने नियम ‘दूध नीर नित्य छान रखीजे’ का निर्देश दिया। मासिक धर्म के दौरान स्त्रियों की परेशानियों को समझते हुए तथा सैनिटरी नैपकिंस के अभाव के उस युग में शुचिता का ध्यान रखते हुए जसनाथ जी ने ‘रजश्वला नारी दूर करीजे, हाथ उसी का जल नहीं लीजे’। ‘दस दिन सूतक पालो भाई’ संभवतः प्रसूता के कक्ष की स्वच्छता बनाए रखने (जन्म सूतक) के लिए तथा मृत्यु सूतक संभवतः उस समय संक्रामक बीमारी अथवा महामारी से होने वाली मृत्य के फैलने से बचाने के लिए था। आज कोरोना जैसी महामारी में सूतक की सनातन परम्परा सही साबित हुई है। समाज में केकड़े के स्वभाव वाले लोग जो स्वजाति बंधुओं की टांग खींचते हैं को चेताते हुए जसनाथ जी ने ‘कुल की काट करीजे नाहीं’ कहा।
इनके बारे में कहा जाता है कि – “नेम छत्तीस ही धर्म के कहे गुरु जसनाथ, या विध धर्म सुधारसी, भव सागर तिर जात।”
इन नियमों के जरिए जसनाथजी महाराज थोड़े शब्दों में ही वेदों और शास्त्रों का सार कह गए। सबसे अच्छी बात यह थी कि ये नियम जनसाधारण की मायड़ भाषा में थे। ये 36 नियम निम्नलिखित हैं-
1. जो कोई जात हुए जसनाथी
2. उत्तम करणी राखो आछी
3. राह चलो, धर्म अपना रखो
4. भूख मरो पण जीव ना भखो
5. शील स्नान सांवरी सूरत
6. जोत पाठ परमेश्वर मूरत
7. होम जाप अग्नीश्वर पूजा
8. अन्य देव मत मानो दूजा
9. ऐंठे मुख पर फूंक ना दीजो
10. निकम्मी बात काल मत कीजो
11. मुख से राम नाम गुण लीजो
12. शिव शंकर को ध्यान धरीजो
13. कन्या दाम कदै नहीं लीजो
14. ब्याज बसेवो दूर करीजो
15. गुरु की आज्ञा विश्वंत बांटो
16. काया लगे नहीं अग्नि कांटो
17. हुक्को, तमाखू पीजे नाहीं
18. लसन अर भांग दूर हटाई
19. साटियो सौदा वर्जित ताई
20. बैल बढ़ावन पावे नाहीं
21. मृगां बन में रखत कराई
22. घेटा बकरा थाट सवाई
23. दया धर्म सदा ही मन भाई
24. घर आयां सत्कार सदा ही
25. भूरी जटा सिर पर रखीजे
26. गुरु मंत्र हृदय में धरीजे
27. देही भोम समाधि लीजे
28. दूध नीर नित्य छान रखीजे
29. निंद्या, कूड़, कपट नहीं कीजे
30. चोरी जारी पर हर ना दीजे
31. राजश्वला नारी दूर करीजे
32. हाथ उसी का जल नहीं लीजे
33. काला पानी पीजे नाहीं
34. नाम उसी का लीजे नाहीं
35. दस दिन सूतक पालो भाई
36. कुल की काट करीजे नाहीं
यहाँ देखा जाए तो ‘जो कोई जात हुए जसनाथी’ से वस्तुतः एक ही नियम ‘जो भी जसनाथी धर्म का पालन करेगा, वह सदैव उत्तम कार्य करेगा’ बनता है। नियमों की संख्या में इस कमी का कारण लगातार मौखिक परम्परा के रूप में प्रचलित होने से कुछ नियमों यथा ‘पिंडा दान कदै ना कीजे’ (श्राद्ध तर्पण का निषेध) जैसे नियमों का जन स्मृति से लोप है। पहले ही नियम से स्पष्ट है की जसनाथ जी ने कर्मवाद को महत्त्व दिया है। ‘राह चलो, धर्म अपना रखो’ के माध्यम से जसनाथजी ने पथभ्रष्ट होने से बचने एवं स्वधर्म पालन का निर्देश दिया है जो तत्कालीन मुस्लिम शासन में लम्पट धर्मांतरण के विरोध में था, आज के भौतिकता वादी युग में पश्चात्यीकरण के सम्बन्ध में प्रासंगिक है। ‘गुरु मंत्र हृदय में धरीजे’ के जरिए भी जसनाथजी ने इसी बात की चेतावनी दी है। ‘भूख मरो पण जीव ना भखो’ जसनाथजी ने अहिंसा पर बल देते हुए कहा है की किसी जीव की हत्या करने से अच्छा है भूख मरना, इससे सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि जसनाथजी प्राणियों के प्रति कितने संवेदनशील थे। इस बात का एक सबूत यह भी है कि जसनाथजी द्वारा सर्वाधिक नियम इसी विषय पर है। प्राणिमात्र के प्रति दया भाव के अनुरूप ‘दया धर्म सदा ही मन भाई’ उस भाव को यथार्थ से जोड़ने हेतु पशुओं को साटियों/कसाइयों को बेचने की बजाय साथी पशुपालकों को बेचने का निर्देश ‘साटियो सौदा वर्जित ताई’, पशु क्रूरता को रोकने हेतु बछड़ों के बधियाकरण रोकना ‘बैल बढ़ावन पावे नाहीं’, वन्य जीवों विशेषतः स्थानीय छोटे हिरणों (चिंकारा) के संरक्षण का निर्देश ‘मृगां वन में रखत कराई’ और इसी क्रम में घेटों और अमर बकरों के लिए थाट की व्यवस्था का निर्देश ‘घेटा बकरा थाट सवाई’ दिया है। ‘शील स्नान सांवरी सूरत’ में जसनाथ जी ने शारीरिक स्वच्छता के महत्व को समझते हुए नित्य प्रतिदिन स्नान का निर्देश दिया। उल्लेखनीय है कि जब पड़ौसी गांव मौलानिया के चौधरी ने जसनाथजी से अपने ऊँट के बारे में पूछा तो जसनाथजी ने उससे नित्य स्नान का वचन लिए। शरीर के अलावा व्यक्ति का मन भी शुद्ध होना चाहिए इसी विश्वास के साथ जसनाथ जी ने लोगों को ‘निंद्या, कूड़, कपट नहीं कीजे’ निर्देश दिया है। लोगों की संपत्ति पर कुदृष्टि ना डालने का कहते हुए ‘चोरी जारी पर हर ना दीजे’ का निर्देश। ‘जोत पाठ परमेश्वर मूरत’ तथा ‘होम-जाप अग्नीश्वर पूजा’ सिद्ध धर्म की पूजा पद्धति का आधार बने। ‘अन्य देव मत मानो दूजा’ के जरिए जसनाथजी ने एक ही नियम से सिद्धों को एकेश्वरवाद को अपनाने को कह दिया। अग्नि मानव के प्रथम आविष्कारों में से एक है, यह प्रागैतिहासिक काल से हमारे काम आ रही है, गंगा की तरह सब अशुद्धियों को नष्ट करके भी स्वयं अपवित्र नहीं होती, अतः उच्छिष्ट मुख से इसमें फूंक देकर इसके अपमान को ‘ऐंठे मुख पर फूंक ना दीजो’ के जरिए निषेध किया। जो मनुष्य निर्जीव वस्तुओं, पशु-पक्षियों के प्रति भी कृतज्ञता रखेगा वह मानव समाज के लायक बनेगा। प्रकृतिपूजक समाजों का मर्म यही है। ‘निकम्मी बात काल मत कीजो’ में समय के मूल्य और शब्दों के महत्त्व को समझते हुए गुरु महाराज ने व्यक्ति को मितभाषी बनने और व्यर्थ प्रलाप से बचने की सलाह दी है। ‘मुख से राम नाम गुण लीजो’ तथा ‘शिवशंकर को ध्यान धरीजो’ में जसनाथजी ने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का निर्देश देते हुए उसके यशोगान तथा ध्यान का निर्देश दिया। तत्कालीन समाज में जब कन्या दान का वैदिक संस्कार पतित होकर विक्रय का रूप ले चुका था, लोग रीत के पैसे के लिए अपनी बेटियों का बेमेल विवाह कर रहे थे, जसनाथ जी ने मुक्तिदाता के रूप में ‘कन्या दाम कदै नहीं लीजो’ कहा। उस समय जब सूदखोर अनाप-शनाप ब्याज लेकर किसानों के खेत हड़प रहे थे, जसनाथजी ने ब्याज से दूर रहने का निर्देश ‘ब्याज बसेवो दूर करीजे’ दिया। जसनाथजी ने सिद्ध धर्म के अबाध प्रचार-प्रसार का निर्देश देते हुए कहा कि ‘गुरु की आज्ञा विश्वंत बांटो, काया लगे नहीं अग्नि कांटो’। ‘हुक्को, तमाखू पीजे नाहीं’ के जरिए जसनाथजी ने तम्बाकू सेवन एवं धुम्रपान के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावों को देखते हुए इसका निषेध कर दिया, ‘लसन अर भांग दूर हटाई’ में तामसिक पदार्थों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। इतना ही नहीं ‘काला पानी पीजे नाहीं, नाम उसी का लीजे नाहीं’ में मद्यपान का निषेध करते हुए जसनाथ जी ने इसका नामोच्चारण तक उचित नहीं समझा। नशा मुक्ति पर इतना जोर समाज को पतन से बचाकर उसके बहुमुखी विकास के लिए ही था। ‘अतिथि देवो भवः’ की भारतीय परम्परा को जसनाथजी ने ‘घर आयां सत्कार सदा ही’ जरिए पुनर्स्थापित किया। ‘भूरी जटा सिर पर रखीजे’ झड़ूला संस्कार से सम्बन्धित है। पर्यावरण में वृक्षों के महत्त्व को देखते हुए, उन्हें बचाने हेतु जसनाथजी ने दाह संस्कार की जगह ‘देही भोम समाधि लीजे’ में समाधि के प्रचलन को प्रोत्साहित किया। स्वच्छ भोजन के महत्त्व को जानते हुए जसनाथ जी ने नियम ‘दूध नीर नित्य छान रखीजे’ का निर्देश दिया। मासिक धर्म के दौरान स्त्रियों की परेशानियों को समझते हुए तथा सैनिटरी नैपकिंस के अभाव के उस युग में शुचिता का ध्यान रखते हुए जसनाथ जी ने ‘रजश्वला नारी दूर करीजे, हाथ उसी का जल नहीं लीजे’। ‘दस दिन सूतक पालो भाई’ संभवतः प्रसूता के कक्ष की स्वच्छता बनाए रखने (जन्म सूतक) के लिए तथा मृत्यु सूतक संभवतः उस समय संक्रामक बीमारी अथवा महामारी से होने वाली मृत्य के फैलने से बचाने के लिए था। आज कोरोना जैसी महामारी में सूतक की सनातन परम्परा सही साबित हुई है। समाज में केकड़े के स्वभाव वाले लोग जो स्वजाति बंधुओं की टांग खींचते हैं को चेताते हुए जसनाथ जी ने ‘कुल की काट करीजे नाहीं’ कहा।
Thank you sir ji
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